Chapter 9 - Raja Vidya Raja Guhyayoga (The Royal Path)

  • राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्। प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।9.2।।

    rāja-vidyā rāja-guhyaṁ pavitram idam uttamam pratyakṣhāvagamaṁ dharmyaṁ su-sukhaṁ kartum avyayam

    ।।9.2।। यह सम्पूर्ण विद्याओंका और सम्पूर्ण गोपनीयोंका राजा है। यह अति पवित्र तथा अतिश्रेष्ठ है और इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है और करनेमें बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।


  • अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप। अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9.3।।

    aśhraddadhānāḥ puruṣhā dharmasyāsya parantapa aprāpya māṁ nivartante mṛityu-samsāra-vartmani

    ।।9.3।। हे परंतप! इस धर्मकी महिमापर श्रद्धा न रखनेवाले मनुष्य मेरे प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसारके मार्गमें लौटते रहते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।


  • मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।9.4।।

    mayā tatam idaṁ sarvaṁ jagad avyakta-mūrtinā mat-sthāni sarva-bhūtāni na chāhaṁ teṣhvavasthitaḥ

    ।।9.4 -- 9.5।। यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूपसे व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं; परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा वे प्राणी भी मुझ में स्थित नहीं हैं -- मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग-(सामर्थ्य-) को देख ! सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाला और उनका धारण, भरण-पोषण करनेवाला मेरा स्वरूप उन प्राणियोंमें स्थित नहीं है।


  • न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्। भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।9.5।।

    na cha mat-sthāni bhūtāni paśhya me yogam aiśhwaram bhūta-bhṛin na cha bhūta-stho mamātmā bhūta-bhāvanaḥ

    ।।9.4 -- 9.5।। यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूपसे व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मुझ में स्थित हैं; परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा वे प्राणी भी मेरेमें स्थित नहीं हैं -- मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग-(सामर्थ्य-) को देख ! सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाला और उनका धारण, भरण-पोषण करनेवाला मेरा स्वरूप उन प्राणियोंमें स्थित नहीं है।


  • यथाऽऽकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्। तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।9.6।।

    yathākāśha-sthito nityaṁ vāyuḥ sarvatra-go mahān tathā sarvāṇi bhūtāni mat-sthānītyupadhāraya

    ।।9.6।। जैसे सब जगह विचरनेवाली महान् वायु नित्य ही आकाशमें स्थित रहती है, ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं -- ऐसा तुम मान लो।


  • सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।9.7।।

    sarva-bhūtāni kaunteya prakṛitiṁ yānti māmikām kalpa-kṣhaye punas tāni kalpādau visṛijāmyaham

    ।।9.7।। हे कुन्तीनन्दन ! कल्पोंका क्षय होनेपर सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं और कल्पोंके आदिमें मैं फिर उनकी रचना करता हूँ।


  • प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः। भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।9.8।।

    prakṛitiṁ svām avaṣhṭabhya visṛijāmi punaḥ punaḥ bhūta-grāmam imaṁ kṛitsnam avaśhaṁ prakṛiter vaśhāt

    ।।9.8।। प्रकृतिके वशमें होनेसे परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण प्राणिसमुदायको मैं (कल्पोंके आदिमें) अपनी प्रकृतिको वशमें करके बार-बार रचता हूँ।


  • न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय। उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।9.9।।

    na cha māṁ tāni karmāṇi nibadhnanti dhanañjaya udāsīna-vad āsīnam asaktaṁ teṣhu karmasu

    ।।9.9।। हे धनञ्जय ! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मोंमें अनासक्त और उदासीनकी तरह रहते हुए मेरेको वे कर्म नहीं बाँधते।


  • मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।9.10।।

    mayādhyakṣheṇa prakṛitiḥ sūyate sa-charācharam hetunānena kaunteya jagad viparivartate

    ।।9.10।। प्रकृति मेरी अध्यक्षतामें सम्पूर्ण चराचर जगत् को रचती है। हे कुन्तीनन्दन ! इसी हेतुसे जगत् का विविध प्रकारसे परिवर्तन होता है।


  • अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।9.11।।

    avajānanti māṁ mūḍhā mānuṣhīṁ tanum āśhritam paraṁ bhāvam ajānanto mama bhūta-maheśhvaram

    ।।9.11।। मूर्खलोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियोंके महान् ईश्वररूप परमभावको न जानते हुए मुझे मनुष्यशरीरके आश्रित मानकर अर्थात् साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं।


  • मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।9.12।।

    moghāśhā mogha-karmāṇo mogha-jñānā vichetasaḥ rākṣhasīm āsurīṁ chaiva prakṛitiṁ mohinīṁ śhritāḥ

    ।।9.12।। जिनकी सब आशाएँ व्यर्थ होती हैं, सब शुभ-कर्म व्यर्थ होते हैं और सब ज्ञान व्यर्थ होते हैं अर्थात् जिनकी आशाएँ, कर्म और ज्ञान सत्-फल देनेवाले नहीं होते, ऐसे अविवेकी मनुष्य आसुरी, राक्षसी और मोहिनी फकृतिका आश्रय लेते हैं।


  • महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।9.13।।

    mahātmānas tu māṁ pārtha daivīṁ prakṛitim āśhritāḥ bhajantyananya-manaso jñātvā bhūtādim avyayam

    ।।9.13।। परन्तु हे पृथानन्दन ! दैवी प्रकृतिके आश्रित अनन्यमनवाले महात्मालोग मुझे सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि और अविनाशी समझकर मेरा भजन करते हैं।


  • सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः। नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।9.14।।

    satataṁ kīrtayanto māṁ yatantaśh cha dṛiḍha-vratāḥ namasyantaśh cha māṁ bhaktyā nitya-yuktā upāsate

    ।।9.14।। नित्य- (मेरेमें) युक्त मनुष्य दृढ़व्रती होकर लगनपूर्वक साधनमें लगे हुए और भक्तिपूर्वक कीर्तन करते हुए तथा नमस्कार करते हुये निरन्तर मेरी उपासना करते हैं।


  • ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।9.15।।

    jñāna-yajñena chāpyanye yajanto mām upāsate ekatvena pṛithaktvena bahudhā viśhvato-mukham

    ।।9.15।। दूसरे साधक ज्ञानयज्ञके द्वारा एकीभावसे (अभेद-भावसे) मेरा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे कई साधक अपनेको पृथक् मानकर चारों तरफ मुखवाले मेरे विराट्ररुपकी अर्थात् संसारको मेरा विराट्ररुप मानकर (सेव्य-सेवकभावसे) मेरी अनेक प्रकारसे उपासना करते हैं।


  • अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाऽहमहमौषधम्। मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।।9.16।।

    ahaṁ kratur ahaṁ yajñaḥ svadhāham aham auṣhadham mantro ’ham aham evājyam aham agnir ahaṁ hutam

    ।।9.16 -- 9.18।। क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत्का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।


  • पिताऽहमस्य जगतो माता धाता पितामहः। वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च।।9.17।।

    pitāham asya jagato mātā dhātā pitāmahaḥ vedyaṁ pavitram oṁkāra ṛik sāma yajur eva cha

    ।।9.16 -- 9.18।। क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत् का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।


  • गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।9.18।।

    gatir bhartā prabhuḥ sākṣhī nivāsaḥ śharaṇaṁ suhṛit prabhavaḥ pralayaḥ sthānaṁ nidhānaṁ bījam avyayam

    ।।9.16 -- 9.18।। क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत्का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।


  • तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च। अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।9.19।।

    tapāmyaham ahaṁ varṣhaṁ nigṛihṇāmyutsṛijāmi cha amṛitaṁ chaiva mṛityuśh cha sad asach chāham arjuna

    ।।9.19।। हे अर्जुन ! (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, जलको ग्रहण करता हूँ और फिर उस जलको वर्षारूपसे बरसा देता हूँ। (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।


  • त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।9.20।।

    trai-vidyā māṁ soma-pāḥ pūta-pāpā yajñair iṣhṭvā svar-gatiṁ prārthayante te puṇyam āsādya surendra-lokam aśhnanti divyān divi deva-bhogān

    ।।9.20।। वेदत्रयीमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानको करनेवाले और सोमरसको पीनेवाले जो पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा इन्द्ररूपसे मेरा पूजन करके स्वर्ग-प्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं, वे पुण्यके फलस्वरूप इन्द्रलोकको प्राप्त करके वहाँ स्वर्गमें देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं।


  • ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। एव त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते।।9.21।।

    te taṁ bhuktvā swarga-lokaṁ viśhālaṁ kṣhīṇe puṇye martya-lokaṁ viśhanti evaṁ trayī-dharmam anuprapannā gatāgataṁ kāma-kāmā labhante

    ।।9.21।। वे उस विशाल स्वर्गलोकके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्य आवागमनको प्राप्त होते हैं।


  • अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22।।

    ananyāśh chintayanto māṁ ye janāḥ paryupāsate teṣhāṁ nityābhiyuktānāṁ yoga-kṣhemaṁ vahāmyaham

    ।।9.22।। जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मेरेमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।


  • येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।9.23।।

    ye ’pyanya-devatā-bhaktā yajante śhraddhayānvitāḥ te ’pi mām eva kaunteya yajantyavidhi-pūrvakam

    ।।9.23।। हे कुन्तीनन्दन! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी करते हैं मेरा ही पूजन, पर करते है अविधिपूर्वक


  • अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।।9.24।।

    ahaṁ hi sarva-yajñānāṁ bhoktā cha prabhureva cha na tu mām abhijānanti tattvenātaśh chyavanti te

    ।।9.24।। क्योंकि मैं ही सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी भी हूँ; परन्तु वे मेरेको तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है।


  • यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः। भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।9.25।।

    yānti deva-vratā devān pitṝīn yānti pitṛi-vratāḥ bhūtāni yānti bhūtejyā yānti mad-yājino ’pi mām

    ।।9.25।। (सकामभावसे) देवताओंका पूजन करनेवाले (शरीर छोड़नेपर) देवताओंको प्राप्त होते हैं। पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करनेवाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।


  • पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।9.26।।

    patraṁ puṣhpaṁ phalaṁ toyaṁ yo me bhaktyā prayachchhati tadahaṁ bhaktyupahṛitam aśhnāmi prayatātmanaḥ

    ।।9.26।।जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य प्राप्त वस्तु) को भक्तिपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मेरेमें तल्लीन हुए अन्तःकरणवाले भक्तके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये हुए उपहार-(भेंट-) को मैं खा लेता हूँ।


  • यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।9.27।।

    yat karoṣhi yad aśhnāsi yaj juhoṣhi dadāsi yat yat tapasyasi kaunteya tat kuruṣhva mad-arpaṇam

    ।।9.27।। हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।


  • शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।।9.28।।

    śhubhāśhubha-phalair evaṁ mokṣhyase karma-bandhanaiḥ sannyāsa-yoga-yuktātmā vimukto mām upaiṣhyasi

    ।।9.28।। इस प्रकार मेरे अर्पण करनेसे जिनसे कर्मबन्धन होता है, ऐसे शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपनेसहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे मुक्त हुआ तू मेरेको प्राप्त हो जायगा।


  • समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।9.29।।

    samo ’haṁ sarva-bhūteṣhu na me dveṣhyo ’sti na priyaḥ ye bhajanti tu māṁ bhaktyā mayi te teṣhu chāpyaham

    ।।9.29।। मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ। उन प्राणियोंमें न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मेरेमें हैं और मैं उनमें हूँ।


  • अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।9.30।।

    api chet su-durāchāro bhajate mām ananya-bhāk sādhur eva sa mantavyaḥ samyag vyavasito hi saḥ

    ।।9.30।। अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है, तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।


  • क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति। कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।9.31।।

    kṣhipraṁ bhavati dharmātmā śhaśhvach-chhāntiṁ nigachchhati kaunteya pratijānīhi na me bhaktaḥ praṇaśhyati

    ।।9.31।। वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन ! तुम प्रतिज्ञा करो कि मेरे भक्तका विनाश (पतन) नहीं होता।


  • मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।9.32।।

    māṁ hi pārtha vyapāśhritya ye ’pi syuḥ pāpa-yonayaḥ striyo vaiśhyās tathā śhūdrās te ’pi yānti parāṁ gatim

    ।।9.32।। हे पृथानन्दन ! जो भी पापयोनिवाले हों तथा जो भी स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र हों, वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर निःसन्देह परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं।


  • किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।।9.33।।

    kiṁ punar brāhmaṇāḥ puṇyā bhaktā rājarṣhayas tathā anityam asukhaṁ lokam imaṁ prāpya bhajasva mām

    ।।9.33।। जो पवित्र आचरणवाले ब्राह्मण और ऋषिस्वरूप क्षत्रिय भगवान् के भक्त हों, वे परमगतिको प्राप्त हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है। इसलिये इस अनित्य और सुखरहित शरीरको प्राप्त करके तू मेरा भजन कर।


  • मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।9.34।।

    man-manā bhava mad-bhakto mad-yājī māṁ namaskuru mām evaiṣhyasi yuktvaivam ātmānaṁ mat-parāyaṇaḥ

    ।।9.34।। तू मेरा भक्त हो जा, मेरेमें मनवाला हो जा, मेरा पूजन करनेवाला हो जा और मेरेको नमस्कार कर। इस प्रकार मेरे साथ अपने-आपको लगाकर, मेरे परायण हुआ तू मेरेको ही प्राप्त होगा। ,


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