किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।4.16।।
kiṁ karma kim akarmeti kavayo ’pyatra mohitāḥ tat te karma pravakṣhyāmi yaj jñātvā mokṣhyase ’śhubhāt
।।4.16।। कर्म क्या है और अकर्म क्या है -- इस प्रकार इस विषयमें विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। अतः वह कर्म-तत्त्व मैं तुम्हें भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू अशुभ- (संसार-बन्धन-) से मुक्त हो जायगा।
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