यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतो़ऽन्यः कुरुसत्तम।।4.31।।
yajña-śhiṣhṭāmṛita-bhujo yānti brahma sanātanam nāyaṁ loko ’styayajñasya kuto ’nyaḥ kuru-sattama
।।4.31।। हे कुरुवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करनेवाले मनुष्यके लिये यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा?
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