śhrī bhagavān uvācha anāśhritaḥ karma-phalaṁ kāryaṁ karma karoti yaḥ sa sannyāsī cha yogī cha na niragnir na chākriyaḥ
।।6.1।। श्रीभगवान् बोले -- कर्मफलका आश्रय न लेकर जो कर्तव्यकर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है; और केवल अग्निका त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओंका त्याग करनेवाला योगी नहीं होता।
yaṁ sannyāsam iti prāhur yogaṁ taṁ viddhi pāṇḍava na hyasannyasta-saṅkalpo yogī bhavati kaśhchana
।।6.2।। हे अर्जुन ! लोग जिसको संन्यास कहते हैं, उसीको तुम योग समझो; क्योंकि संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता।
ārurukṣhor muner yogaṁ karma kāraṇam uchyate yogārūḍhasya tasyaiva śhamaḥ kāraṇam uchyate
।।6.3।। जो योग-(समता-) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्तिमें कारण कहा गया है।
yadā hi nendriyārtheṣhu na karmasv-anuṣhajjate sarva-saṅkalpa-sannyāsī yogārūḍhas tadochyate
।।6.4।। जिस समय न इन्द्रियोंके भोगोंमें तथा न कर्मोंमें ही आसक्त होता है, उस समय वह सम्पूर्ण संकल्पोंका त्यागी मनुष्य योगारूढ़ कहा जाता है।
bandhur ātmātmanas tasya yenātmaivātmanā jitaḥ anātmanas tu śhatrutve vartetātmaiva śhatru-vat
।।6.6।। जिसने अपने-आपसे अपने-आपको जीत लिया है, उसके लिये आप ही अपना बन्धु है और जिसने अपने-आपको नहीं जीता है, ऐसे अनात्माका आत्मा ही शत्रुतामें शत्रुकी तरह बर्ताव करता है।
jitātmanaḥ praśhāntasya paramātmā samāhitaḥ śhītoṣhṇa-sukha-duḥkheṣhu tathā mānāpamānayoḥ
।।6.7।। जिसने अपने-आपपर अपनी विजय कर ली है, उस शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता) सुख-दुःख तथा मान-अपमानमें निर्विकार मनुष्यको परमात्मा नित्यप्राप्त हैं।
jñāna-vijñāna-tṛiptātmā kūṭa-stho vijitendriyaḥ yukta ityuchyate yogī sama-loṣhṭāśhma-kāñchanaḥ
।।6.8।। जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त है, जो कूटकी तरह निर्विकार है, जितेन्द्रिय है और मिट्टीके ढेले, पत्थर तथा स्वर्णमें समबुद्धिवाला है -- ऐसा योगी युक्त (योगारूढ़) कहा जाता है।
suhṛin-mitrāryudāsīna-madhyastha-dveṣhya-bandhuṣhu sādhuṣhvapi cha pāpeṣhu sama-buddhir viśhiṣhyate
।।6.9।। सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियोंमें तथा साधु-आचरण करनेवालोंमें और पाप-आचरण करनेवालोंमें भी समबुद्धिवाला मनुष्य श्रेष्ठ है।
yogī yuñjīta satatam ātmānaṁ rahasi sthitaḥ ekākī yata-chittātmā nirāśhīr aparigrahaḥ
।।6.10।। भोगबुद्धिसे संग्रह न करनेवाला, इच्छारहित और अन्तःकरण तथा शरीरको वशमें रखनेवाला योगी अकेला एकान्तमें स्थित होकर मनको निरन्तर परमात्मामें लगाये।
śhuchau deśhe pratiṣhṭhāpya sthiram āsanam ātmanaḥ nātyuchchhritaṁ nāti-nīchaṁ chailājina-kuśhottaram
।।6.11।। शुद्ध भूमिपर, जिसपर क्रमशः कुश, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न अत्यन्त ऊँचा है और न अत्यन्त नीचा, ऐसे अपने आसनको स्थिरस्थापन करके।
tatraikāgraṁ manaḥ kṛitvā yata-chittendriya-kriyaḥ upaviśhyāsane yuñjyād yogam ātma-viśhuddhaye
।।6.12।। उस आसनपर बैठकर चित्त और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको वशमें रखते हुए मनको एकाग्र करके अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये योगका अभ्यास करे।
samaṁ kāya-śhiro-grīvaṁ dhārayann achalaṁ sthiraḥ samprekṣhya nāsikāgraṁ svaṁ diśhaśh chānavalokayan
।।6.13।। काया, शिर और ग्रीवाको सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओंको न देखकर केवल अपनी नासिकाके अग्रभागको देखते हुए स्थिर होकर बैठे।
praśhāntātmā vigata-bhīr brahmachāri-vrate sthitaḥ manaḥ sanyamya mach-chitto yukta āsīta mat-paraḥ
।।6.14।। जिसका अन्तःकरण शान्त है, जो भय-रहित है और जो ब्रह्मचारिव्रतमें स्थित है, ऐसा सावधान योगी मनका संयम करके मेरेमें चित्त लगाता हुआ मेरे परायण होकर बैठे।
yuñjann evaṁ sadātmānaṁ yogī niyata-mānasaḥ śhantiṁ nirvāṇa-paramāṁ mat-sansthām adhigachchhati
।।6.15।। नियत मनवाला योगी मनको इस तरहसे सदा परमात्मामें लगाता हुआ मेरेमें सम्यक् स्थितिवाली जो निर्वाणपरमा शान्ति है, उसको प्राप्त हो जाता है।
nātyaśhnatastu yogo ’sti na chaikāntam anaśhnataḥ na chāti-svapna-śhīlasya jāgrato naiva chārjuna
।।6.16।। हे अर्जुन ! यह योग न तो अधिक खानेवालेका और न बिलकुल न खानेवालेका तथा न अधिक सोनेवालेका और न बिलकुल न सोनेवालेका ही सिद्ध होता है।
yuktāhāra-vihārasya yukta-cheṣhṭasya karmasu yukta-svapnāvabodhasya yogo bhavati duḥkha-hā
।।6.17।। दुःखोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करनेवालेका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका तथा यथायोग्य सोने और जागनेवालेका ही सिद्ध होता है।
yadā viniyataṁ chittam ātmanyevāvatiṣhṭhate niḥspṛihaḥ sarva-kāmebhyo yukta ityuchyate tadā
।।6.18।। वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थोंसे निःस्पृह हो जाता है, उस कालमें वह योगी है - ऐसा कहा जाता है।
yathā dīpo nivāta-stho neṅgate sopamā smṛitā yogino yata-chittasya yuñjato yogam ātmanaḥ
।।6.19।। जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए वश में किए हुए चित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।
yatroparamate chittaṁ niruddhaṁ yoga-sevayā yatra chaivātmanātmānaṁ paśhyann ātmani tuṣhyati
।।6.20।। योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आप से अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें ही सन्तुष्ट हो जाता है।
sukham ātyantikaṁ yat tad buddhi-grāhyam atīndriyam vetti yatra na chaivāyaṁ sthitaśh chalati tattvataḥ
।।6.21।। जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य है, उस सुखका जिस अवस्थामें अनुभव करता है और जिस सुखमें स्थित हुआ यह ध्यानयोगी फिर कभी तत्त्वसे विचलित नहीं होता।
yaṁ labdhvā chāparaṁ lābhaṁ manyate nādhikaṁ tataḥ yasmin sthito na duḥkhena guruṇāpi vichālyate
।।6.22।। जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता।
taṁ vidyād duḥkha-sanyoga-viyogaṁ yogasaṅjñitam sa niśhchayena yoktavyo yogo ’nirviṇṇa-chetasā
।।6.23।। जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको 'योग' नामसे जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोगका लक्ष्य है,) उस ध्यानयोगका अभ्यास न उकताये हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक करना चाहिये।
saṅkalpa-prabhavān kāmāns tyaktvā sarvān aśheṣhataḥ manasaivendriya-grāmaṁ viniyamya samantataḥ
।।6.24।। संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंका सर्वथा त्याग करके और मनसे ही इन्द्रिय-समूहको सभी ओरसे हटाकर।
śhanaiḥ śhanair uparamed buddhyā dhṛiti-gṛihītayā ātma-sansthaṁ manaḥ kṛitvā na kiñchid api chintayet
।।6.25।। धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा संसारसे धीरे-धीरे उपराम हो जाय और परमात्मस्वरूपमें मन-(बुद्धि-) को सम्यक् प्रकारसे स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे।
praśhānta-manasaṁ hyenaṁ yoginaṁ sukham uttamam upaiti śhānta-rajasaṁ brahma-bhūtam akalmaṣham
।।6.27।। जिसके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिसका रजोगुण तथा मन सर्वथा शान्त(निर्मल) हो गया है, ऐसे इस ब्रह्मस्वरूप योगीको निश्चित ही उत्तम (सात्त्विक) सुख प्राप्त होता है।
yuñjann evaṁ sadātmānaṁ yogī vigata-kalmaṣhaḥ sukhena brahma-sansparśham atyantaṁ sukham aśhnute
।।6.28।। इस प्रकार अपने-आपको सदा परमात्मामें लगाता हुआ पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त सुखको प्राप्त हो जाता है।
sarva-bhūta-stham ātmānaṁ sarva-bhūtāni chātmani īkṣhate yoga-yuktātmā sarvatra sama-darśhanaḥ
।।6.29।। सब जगह अपने स्वरूपको देखनेवाला और ध्यानयोगसे युक्त अन्तःकरणवाला योगा अपने स्वरूपको सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित देखता है और सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूपमें देखता है।
yo māṁ paśhyati sarvatra sarvaṁ cha mayi paśhyati tasyāhaṁ na praṇaśhyāmi sa cha me na praṇaśhyati
।।6.30।। जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
sarva-bhūta-sthitaṁ yo māṁ bhajatyekatvam āsthitaḥ sarvathā vartamāno ’pi sa yogī mayi vartate
।।6.31।। मेरेमें एकीभावसे स्थित हुआ जो योगी सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित मेरा भजन करता है, वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मेरेमें ही बर्ताव कर रहा है अर्थात् वह सर्वथा मेरेमें ही स्थित है।
ātmaupamyena sarvatra samaṁ paśhyati yo ’rjuna sukhaṁ vā yadi vā duḥkhaṁ sa yogī paramo mataḥ
।।6.32।। हे अर्जुन ! जो (ध्यानयुक्त ज्ञानी महापुरुष) अपने शरीरकी उपमासे सब जगह अपनेको समान देखता है और सुख अथवा दुःखको भी समान देखता है, वह परम योगी माना गया है।
arjuna uvācha yo ’yaṁ yogas tvayā proktaḥ sāmyena madhusūdana etasyāhaṁ na paśhyāmi chañchalatvāt sthitiṁ sthirām
।।6.33।। अर्जुन बोले -- हे मधुसूदन ! आपने समतापूर्वक जो यह योग कहा है, मनकी चञ्चलताके कारण मैं इस योगकी स्थिर स्थिति नहीं देखता हूँ।
chañchalaṁ hi manaḥ kṛiṣhṇa pramāthi balavad dṛiḍham tasyāhaṁ nigrahaṁ manye vāyor iva su-duṣhkaram
।।6.34।। क्योंकि हे कृष्ण ! मन बड़ा ही चञ्चल, प्रमथनशील, दृढ़ (जिद्दी) और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायुकी तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ।
śhrī bhagavān uvācha asanśhayaṁ mahā-bāho mano durnigrahaṁ chalam abhyāsena tu kaunteya vairāgyeṇa cha gṛihyate
।।6.35।। श्रीभगवान् बोले -- हे महाबाहो ! यह मन बड़ा चञ्चल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है -- यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन ! अभ्यास और वैराग्यके द्वारा इसका निग्रह किया जाता है।
asaṅyatātmanā yogo duṣhprāpa iti me matiḥ vaśhyātmanā tu yatatā śhakyo ’vāptum upāyataḥ
।।6.36।। जिसका मन पूरा वशमें नहीं है, उसके द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है। परन्तु उपायपूर्वक यत्न करनेवाले वश्यात्माको योग प्राप्त हो सकता है, ऐसा मेरा मत है।
arjuna uvācha ayatiḥ śhraddhayopeto yogāch chalita-mānasaḥ aprāpya yoga-sansiddhiṁ kāṅ gatiṁ kṛiṣhṇa gachchhati
।।6.37।। अर्जुन बोले - हे कृष्ण ! जिसकी साधनमें श्रद्धा है, पर जिसका प्रयत्न शिथिल है, वह अन्तसमयमें अगर योगसे विचलितमना हो जाय, तो वह योगसिद्धिको प्राप्त न करके किस गतिको चला जाता है?
kachchin nobhaya-vibhraṣhṭaśh chhinnābhram iva naśhyati apratiṣhṭho mahā-bāho vimūḍho brahmaṇaḥ pathi
।।6.38।। हे महाबाहो ! संसारके आश्रयसे रहित और परमात्मप्राप्तिके मार्गमें मोहित अर्थात् विचलित -- इस तरह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्न-भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता ?
etan me sanśhayaṁ kṛiṣhṇa chhettum arhasyaśheṣhataḥ tvad-anyaḥ sanśhayasyāsya chhettā na hyupapadyate
।।6.39।। हे कृष्ण! मेरे इस सन्देहका सर्वथा छेदन करनेके लिये आप ही योग्य हैं; क्योंकि इस संशयका छेदन करनेवाला आपके सिवाय दूसरा कोई हो नहीं सकता।
śhrī bhagavān uvācha pārtha naiveha nāmutra vināśhas tasya vidyate na hi kalyāṇa-kṛit kaśhchid durgatiṁ tāta gachchhati
।।6.40।। श्रीभगवान् बोले -- हे पृथानन्दन ! उसका न तो इस लोकमें और न परलोकमें ही विनाश होता है; क्योंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी काम करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त नहीं जाता।
prāpya puṇya-kṛitāṁ lokān uṣhitvā śhāśhvatīḥ samāḥ śhuchīnāṁ śhrīmatāṁ gehe yoga-bhraṣhṭo’bhijāyate
।।6.41।। वह योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करनेवालोंके लोकोंको प्राप्त होकर और वहाँ बहुत वर्षोंतक रहकर फिर यहाँ शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है।
atha vā yoginām eva kule bhavati dhīmatām etad dhi durlabhataraṁ loke janma yad īdṛiśham
।।6.42।। अथवा (वैराग्यवान्) योगभ्रष्ट ज्ञानवान् योगियोंके कुलमें ही जन्म लेता है। इस प्रकारका जो यह जन्म है, यह संसारमें बहुत ही दुर्लभ है।
tatra taṁ buddhi-sanyogaṁ labhate paurva-dehikam yatate cha tato bhūyaḥ sansiddhau kuru-nandana
।।6.43।। हे कुरुनन्दन ! वहाँपर उसको पूर्वजन्मकृत साधन-सम्पत्ति अनायास ही प्राप्त हो जाती है। फिर उससे वह साधनकी सिद्धिके विषयमें पुनः विशेषतासे यत्न करता है।
pūrvābhyāsena tenaiva hriyate hyavaśho ’pi saḥ jijñāsur api yogasya śhabda-brahmātivartate
।।6.44।। वह (श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट मनुष्य) भोगोंके परवश होता हुआ भी पूर्वजन्ममें किये हुए अभ्यास-(साधन-) के कारण ही परमात्माकी तरफ खिंच जाता है; क्योंकि योग-(समता-) का जिज्ञासु भी वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है।
prayatnād yatamānas tu yogī sanśhuddha-kilbiṣhaḥ aneka-janma-sansiddhas tato yāti parāṁ gatim
।।6.45।। परन्तु जो योगी प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है और जिसके पाप नष्ट हो गये हैं तथा जो अनेक जन्मोंसे सिद्ध हुआ है, वह योगी फिर परमगतिको प्राप्त हो जाता है।
tapasvibhyo ’dhiko yogī jñānibhyo ’pi mato ’dhikaḥ karmibhyaśh chādhiko yogī tasmād yogī bhavārjuna
।।6.46।। (सकामभाववाले) तपस्वियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है, ज्ञानियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है और कर्मियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है -- ऐसा मेरा मत है। अतः हे अर्जुन ! तू योगी हो जा।
yoginām api sarveṣhāṁ mad-gatenāntar-ātmanā śhraddhāvān bhajate yo māṁ sa me yuktatamo mataḥ
।।6.47।। सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् भक्त मुझमें तल्लीन हुए मनसे मेरा भजन करता है, वह मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी है।
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