sañjaya uvācha taṁ tathā kṛipayāviṣhṭamaśhru pūrṇākulekṣhaṇam viṣhīdantamidaṁ vākyam uvācha madhusūdanaḥ
।।2.1।। संजय बोले - वैसी कायरता से आविष्ट उन अर्जुन के प्रति, जो कि विषाद कर रहे हैं और आँसुओं के कारण जिनके नेत्रों की देखने की शक्ति अवरुद्ध हो रही है, भगवान् मधुसूदन ये (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।
śhrī bhagavān uvācha kutastvā kaśhmalamidaṁ viṣhame samupasthitam anārya-juṣhṭamaswargyam akīrti-karam arjuna
।।2.2।। श्रीभगवान् बोले (टिप्पणी प0 38.1) - हे अर्जुन! इस विषम अवसरपर तुम्हें यह कायरता कहाँसे प्राप्त हुई, जिसका कि श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, जो स्वर्गको देनेवाली नहीं है और कीर्ति करनेवाली भी नहीं है।
klaibyaṁ mā sma gamaḥ pārtha naitat tvayyupapadyate kṣhudraṁ hṛidaya-daurbalyaṁ tyaktvottiṣhṭha parantapa
।।2.3।। हे पृथानन्दन अर्जुन ! इस नपुंसकताको मत प्राप्त हो; क्योंकि तुम्हारेमें यह उचित नहीं है। हे परंतप ! हृदयकी इस तुच्छ दुर्बलताका त्याग करके युद्धके लिये खड़े हो जाओ।
arjuna uvācha kathaṁ bhīṣhmam ahaṁ sankhye droṇaṁ cha madhusūdana iṣhubhiḥ pratiyotsyāmi pūjārhāvari-sūdana
।।2.4।। अर्जुन बोले - हे मधुसूदन! मैं रणभूमिमें भीष्म और द्रोणके साथ बाणोंसे युद्ध कैसे करूँ? क्योंकि हे अरिसूदन! ये दोनों ही पूजाके योग्य हैं।
gurūnahatvā hi mahānubhāvān śhreyo bhoktuṁ bhaikṣhyamapīha loke hatvārtha-kāmāṁstu gurūnihaiva bhuñjīya bhogān rudhira-pradigdhān
।।2.5।। महानुभाव गुरुजनोंको न मारकर इस लोकमें मैं भिक्षाका अन्न खाना भी श्रेष्ठ समझता हूँ। क्योंकि गुरुजनोंको मारकर यहाँ रक्तसे सने हुए तथा धनकी कामनाकी मुख्यतावाले भोगोंको ही तो भोगूँगा!
na chaitadvidmaḥ kataranno garīyo yadvā jayema yadi vā no jayeyuḥ yāneva hatvā na jijīviṣhāmas te ’vasthitāḥ pramukhe dhārtarāṣhṭrāḥ
।।2.6।। हम यह भी नहीं जानते कि हमलोगोंके लिये युद्ध करना और न करना - इन दोनोंमेंसे कौन-सा अत्यन्त श्रेष्ठ है; और हमें इसका भी पता नहीं है कि हम उन्हें जीतेंगे अथवा वे हमें जीतेंगे। जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्रके सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं।
kārpaṇya-doṣhopahata-svabhāvaḥ pṛichchhāmi tvāṁ dharma-sammūḍha-chetāḥ yach-chhreyaḥ syānniśhchitaṁ brūhi tanme śhiṣhyaste ’haṁ śhādhi māṁ tvāṁ prapannam
।।2.7।। कायरतारूप दोषसे तिरस्कृत स्वभाववाला और धर्मके विषयमें मोहित अन्तःकरणवाला मैं आपसे पूछता हूँ कि जो निश्चित कल्याण करनेवाली हो, वह मेरे लिये कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ। आपके शरण हुए मुझे शिक्षा दीजिये।
na hi prapaśhyāmi mamāpanudyād yach-chhokam uchchhoṣhaṇam-indriyāṇām avāpya bhūmāv-asapatnamṛiddhaṁ rājyaṁ surāṇāmapi chādhipatyam
।।2.8।। पृथ्वीपर धन-धान्य-समृद्ध और शत्रुरहित राज्य तथा स्वर्गमें देवताओंका आधिपत्य मिल जाय तो भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा जो शोक है, वह दूर हो जाय - ऐसा मैं नहीं देखता हूँ।
sañjaya uvācha evam-uktvā hṛiṣhīkeśhaṁ guḍākeśhaḥ parantapa na yotsya iti govindam uktvā tūṣhṇīṁ babhūva ha
।।2.9।। संजय बोले - हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र! ऐसा कहकर निद्राको जीतनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी भगवान् गोविन्दसे 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' ऐसा साफ-साफ कहकर चुप हो गये।
tam-uvācha hṛiṣhīkeśhaḥ prahasanniva bhārata senayorubhayor-madhye viṣhīdantam-idaṁ vachaḥ
।।2.10।। हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र! दोनों सेनाओंके मध्यभागमें विषाद करते हुए उस अर्जुनके प्रति हँसते हुए-से भगवान् हृषीकेश यह (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।
śhrī bhagavān uvācha aśhochyān-anvaśhochas-tvaṁ prajñā-vādānśh cha bhāṣhase gatāsūn-agatāsūnśh-cha nānuśhochanti paṇḍitāḥ
।।2.11।। श्रीभगवान् बोले - तुमने शोक न करनेयोग्यका शोक किया है और पण्डिताईकी बातें कह रहे हो; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पण्डितलोग शोक नहीं करते।
na tvevāhaṁ jātu nāsaṁ na tvaṁ neme janādhipāḥ na chaiva na bhaviṣhyāmaḥ sarve vayamataḥ param
।।2.12।। किसी कालमें मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजालोग नहीं थे, यह बात भी नहीं है; और इसके बाद (भविष्य में) मैं, तू और राजलोग - हम सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है।
dehino ’smin yathā dehe kaumāraṁ yauvanaṁ jarā tathā dehāntara-prāptir dhīras tatra na muhyati
।।2.13।। देहधारीके इस मनुष्यशरीरमें जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही देहान्तरकी प्राप्ति होती है। उस विषयमें धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।
mātrā-sparśhās tu kaunteya śhītoṣhṇa-sukha-duḥkha-dāḥ āgamāpāyino ’nityās tans-titikṣhasva bhārata
।।2.14।। हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियोंके जो विषय (जड पदार्थ) हैं, वो तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) - के द्वारा सुख और दुःख देनेवाले हैं तथा आने-जानेवाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो।
yaṁ hi na vyathayantyete puruṣhaṁ puruṣharṣhabha sama-duḥkha-sukhaṁ dhīraṁ so ’mṛitatvāya kalpate
।।2.15।। कारण कि हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुःखमें सम रहनेवाले जिस धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) व्यथित (सुखी-दुःखी) नहीं कर पाते, वह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।
nāsato vidyate bhāvo nābhāvo vidyate sataḥ ubhayorapi dṛiṣhṭo ’nta stvanayos tattva-darśhibhiḥ
।।2.16।। (टिप्पणी प0 55) असत् का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है, तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने इन दोनोंका ही अन्त अर्थात् तत्त्व देखा है।
ya enaṁ vetti hantāraṁ yaśh chainaṁ manyate hatam ubhau tau na vijānīto nāyaṁ hanti na hanyate
।।2.19।। जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरीको मारनेवाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते; क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है।
na jāyate mriyate vā kadāchin nāyaṁ bhūtvā bhavitā vā na bhūyaḥ ajo nityaḥ śhāśhvato ’yaṁ purāṇo na hanyate hanyamāne śharīre
।।2.20।। यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और पुराण (अनादि) है। शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।
vedāvināśhinaṁ nityaṁ ya enam ajam avyayam kathaṁ sa puruṣhaḥ pārtha kaṁ ghātayati hanti kam
।।2.21।। हे पृथानन्दन! जो मनुष्य इस शरीरीको अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये?
vāsānsi jīrṇāni yathā vihāya navāni gṛihṇāti naro ’parāṇi tathā śharīrāṇi vihāya jīrṇānya nyāni sanyāti navāni dehī
।।2.22।। मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है।
nainaṁ chhindanti śhastrāṇi nainaṁ dahati pāvakaḥ na chainaṁ kledayantyāpo na śhoṣhayati mārutaḥ
।।2.23।। शस्त्र इस शरीरीको काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती।
achchhedyo ’yam adāhyo ’yam akledyo ’śhoṣhya eva cha nityaḥ sarva-gataḥ sthāṇur achalo ’yaṁ sanātanaḥ
।।2.24।। यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता। कारण कि यह नित्य रहनेवाला सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है।
avyakto ’yam achintyo ’yam avikāryo ’yam uchyate tasmādevaṁ viditvainaṁ nānuśhochitum arhasi
।।2.25।। यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तनका विषय नहीं है और यह निर्विकार कहा जाता है। अतः इस देहीको ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये।
atha chainaṁ nitya-jātaṁ nityaṁ vā manyase mṛitam tathāpi tvaṁ mahā-bāho naivaṁ śhochitum arhasi
।।2.26।। हे महाबाहो ! अगर तुम इस देहीको नित्य पैदा होनेवाला अथवा नित्य मरनेवाला भी मानो, तो भी तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये।
jātasya hi dhruvo mṛityur dhruvaṁ janma mṛitasya cha tasmād aparihārye ’rthe na tvaṁ śhochitum arhasi
।।2.27।। क्योंकि पैदा हुएकी जरूर मृत्यु होगी और मरे हुएका जरूर जन्म होगा। इस (जन्म-मरण-रूप परिवर्तन के प्रवाह) का परिहार अर्थात् निवारण नहीं हो सकता। अतः इस विषयमें तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
avyaktādīni bhūtāni vyakta-madhyāni bhārata avyakta-nidhanānyeva tatra kā paridevanā
।।2.28।। हे भारत ! सभी प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे, केवल बीचमें ही प्रकट दीखते हैं। अतः इसमें शोक करनेकी बात ही क्या है?
āśhcharya-vat paśhyati kaśhchid enan āśhcharya-vad vadati tathaiva chānyaḥ āśhcharya-vach chainam anyaḥ śhṛiṇoti śhrutvāpyenaṁ veda na chaiva kaśhchit
।।2.29।। कोई इस शरीरीको आश्चर्यकी तरह देखता है और वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्यकी तरह सुनता है; और इसको सुनकर भी कोई नहीं जानता। अर्थात यह शरीरी दुर्विज्ञेय है।
dehī nityam avadhyo ’yaṁ dehe sarvasya bhārata tasmāt sarvāṇi bhūtāni na tvaṁ śhochitum arhasi
।।2.30।। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! सबके देहमें यह देही नित्य ही अवध्य है। इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अर्थात् किसी भी प्राणीके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
swa-dharmam api chāvekṣhya na vikampitum arhasi dharmyāddhi yuddhāch chhreyo ’nyat kṣhatriyasya na vidyate
।।2.31।। अपने स्वधर्म (क्षात्रधर्म) को देखकर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात् कर्तव्य-कर्मसे विचलित नहीं होना चाहिये; क्योंकि धर्ममय युद्धसे बढ़कर क्षत्रियके लिये दूसरा कोई कल्याणकारक कर्म नहीं है।
yadṛichchhayā chopapannaṁ swarga-dvāram apāvṛitam sukhinaḥ kṣhatriyāḥ pārtha labhante yuddham īdṛiśham
।।2.32।। अपने-आप प्राप्त हुआ युद्ध खुला हुआ स्वर्गका दरवाजा भी है। हे पृथानन्दन ! वे क्षत्रिय बड़े सुखी (भाग्यशाली) हैं, जिनको ऐसा युद्ध प्राप्त होता है।
atha chet tvam imaṁ dharmyaṁ saṅgrāmaṁ na kariṣhyasi tataḥ sva-dharmaṁ kīrtiṁ cha hitvā pāpam avāpsyasi
।।2.33।। अब अगर तू यह धर्ममय युद्ध नहीं करेगा, तो अपने धर्म और कीर्तिका त्याग करके पापको प्राप्त होगा।
akīrtiṁ chāpi bhūtāni kathayiṣhyanti te ’vyayām sambhāvitasya chākīrtir maraṇād atirichyate
।।2.34।। और सब प्राणी भी तेरी सदा रहनेवाली अपकीर्तिका कथन अर्थात निंदा करेंगे। वह अपकीर्ति सम्मानित मनुष्यके लिये मृत्युसे भी बढ़कर दुःखदायी होती है।
bhayād raṇād uparataṁ mansyante tvāṁ mahā-rathāḥ yeṣhāṁ cha tvaṁ bahu-mato bhūtvā yāsyasi lāghavam
।।2.35।। महारथीलोग तुझे भयके कारण युद्धसे उपरत (हटा) हुआ मानेंगे। जिनकी धारणामें तू बहुमान्य हो चुका है, उनकी दृष्टिमें तू लघुताको प्राप्त हो जायगा।
avāchya-vādānśh cha bahūn vadiṣhyanti tavāhitāḥ nindantastava sāmarthyaṁ tato duḥkhataraṁ nu kim
।।2.36।। तेरे शत्रुलोग तेरी सार्मथ्यकी निन्दा करते हुए न कहनेयोग्य बहुत-से वचन भी कहेंगे। उससे बढ़कर और दुःखकी बात क्या होगी?
hato vā prāpsyasi swargaṁ jitvā vā bhokṣhyase mahīm tasmād uttiṣhṭha kaunteya yuddhāya kṛita-niśhchayaḥ
।।2.37।। अगर युद्धमें तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्गकी प्राप्ति होगी और अगर युद्धमें तू जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा। अतः हे कुन्तीनन्दन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा।
sukha-duḥkhe same kṛitvā lābhālābhau jayājayau tato yuddhāya yujyasva naivaṁ pāpam avāpsyasi
।।2.38।। जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके फिर युद्धमें लग जा। इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको प्राप्त नहीं होगा।
eṣhā te ’bhihitā sānkhye buddhir yoge tvimāṁ śhṛiṇu buddhyā yukto yayā pārtha karma-bandhaṁ prahāsyasi
।।2.39।। हे पार्थ! यह समबुद्धि तेरे लिए पहले सांख्ययोगमें कही गयी, अब तू इसको कर्मयोगके विषयमें सुन; जिस समबुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मबन्धनका त्याग कर देगा।
nehābhikrama-nāśho ’sti pratyavāyo na vidyate svalpam apyasya dharmasya trāyate mahato bhayāt
।।2.40।। मनुष्यलोकमें इस समबुद्धिरूप धर्मके आरम्भका नाश नहीं होता, इसके अनुष्ठानका उलटा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ासा भी अनुष्ठान (जन्म-मरणरूप) महान् भयसे रक्षा कर लेता है।
vyavasāyātmikā buddhir ekeha kuru-nandana bahu-śhākhā hyanantāśh cha buddhayo ’vyavasāyinām
।।2.41।। हे कुरुनन्दन! इस समबुद्धिकी प्राप्तिके विषयमें व्यवसायात्मिका बुद्धि एक ही होती है। अव्यवसायी मनुष्योंकी बुद्धियाँ अनन्त और बहुशाखाओंवाली ही होती हैं।
yāmimāṁ puṣhpitāṁ vāchaṁ pravadanty-avipaśhchitaḥ veda-vāda-ratāḥ pārtha nānyad astīti vādinaḥ kāmātmānaḥ swarga-parā janma-karma-phala-pradām kriyā-viśheṣha-bahulāṁ bhogaiśhwarya-gatiṁ prati
।।2.42 -- 2.43।। हे पृथानन्दन ! जो कामनाओंमें तन्मय हो रहे हैं, स्वर्गको ही श्रेष्ठ माननेवाले हैं, वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं, भोगोंके सिवाय और कुछ है ही नहीं - ऐसा कहनेवाले हैं, वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकारकी जिस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणीको कहा करते हैं, जो कि जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है तथा भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुतसी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है।
kāmātmānaḥ svarga-parā janma-karma-phala-pradām kriyā-viśeṣa-bahulāṁ bhogaiśvarya-gatiṁ prati
।।2.42 -- 2.43।। हे पृथानन्दन ! जो कामनाओंमें तन्मय हो रहे हैं, स्वर्गको ही श्रेष्ठ माननेवाले हैं, वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं, भोगोंके सिवाय और कुछ है ही नहीं - ऐसा कहनेवाले हैं, वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकारकी जिस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणीको कहा करते हैं, जो कि जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है तथा भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुतसी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है।
bhogaiśwvarya-prasaktānāṁ tayāpahṛita-chetasām vyavasāyātmikā buddhiḥ samādhau na vidhīyate
।।2.44।। उस पुष्पित वाणीसे जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी परमात्मामें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती।
trai-guṇya-viṣhayā vedā nistrai-guṇyo bhavārjuna nirdvandvo nitya-sattva-stho niryoga-kṣhema ātmavān
।।2.45।। वेद तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं; हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंसे रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, निरन्तर नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित हो जा, योगक्षेमकी चाहना भी मत रख और परमात्मपरायण हो जा।
yāvān artha udapāne sarvataḥ samplutodake tāvānsarveṣhu vedeṣhu brāhmaṇasya vijānataḥ
।।2.46।। सब तरफसे परिपूर्ण महान् जलाशयके प्राप्त होनेपर छोटे गड्ढों में भरे जल में मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता, वेदों और शास्त्रोंको तत्त्वसे जाननेवाले ब्रह्मज्ञानीका सम्पूर्ण वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता।
karmaṇy-evādhikāras te mā phaleṣhu kadāchana mā karma-phala-hetur bhūr mā te saṅgo ’stvakarmaṇi
।।2.47।। कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं। अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो।
yoga-sthaḥ kuru karmāṇi saṅgaṁ tyaktvā dhanañjaya siddhy-asiddhyoḥ samo bhūtvā samatvaṁ yoga uchyate
।।2.48।। हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।
dūreṇa hy-avaraṁ karma buddhi-yogād dhanañjaya buddhau śharaṇam anvichchha kṛipaṇāḥ phala-hetavaḥ
।।2.49।। बुद्धियोग-(समता) की अपेक्षा सकामकर्म दूरसे (अत्यन्त) ही निकृष्ट है। अतः हे धनञ्जय ! तू बुद्धि (समता) का आश्रय ले; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं।
buddhi-yukto jahātīha ubhe sukṛita-duṣhkṛite tasmād yogāya yujyasva yogaḥ karmasu kauśhalam
।।2.50।। बुद्धि-(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्थामें ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। अतः तू योग-(समता-) में लग जा, क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।
karma-jaṁ buddhi-yuktā hi phalaṁ tyaktvā manīṣhiṇaḥ janma-bandha-vinirmuktāḥ padaṁ gachchhanty-anāmayam
।।2.51।। समतायुक्त मनीषी साधक कर्मजन्य फलका त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं।
yadā te moha-kalilaṁ buddhir vyatitariṣhyati tadā gantāsi nirvedaṁ śhrotavyasya śhrutasya cha
।।2.52।। जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, उसी समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा।
śhruti-vipratipannā te yadā sthāsyati niśhchalā samādhāv-achalā buddhis tadā yogam avāpsyasi
।।2.53।। जिस कालमें शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मामें अचल हो जायगी, उस कालमें तू योगको प्राप्त हो जायगा।
arjuna uvācha sthita-prajñasya kā bhāṣhā samādhi-sthasya keśhava sthita-dhīḥ kiṁ prabhāṣheta kim āsīta vrajeta kim
।।2.54।। अर्जुन बोले - हे केशव ! परमात्मामें स्थित स्थिर बुद्धिवाले मनुष्यके क्या लक्षण होते हैं? वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?
śhrī bhagavān uvācha prajahāti yadā kāmān sarvān pārtha mano-gatān ātmany-evātmanā tuṣhṭaḥ sthita-prajñas tadochyate
।।2.55।। श्रीभगवान् बोले - हे पृथानन्दन ! जिस कालमें साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओंका अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
duḥkheṣhv-anudvigna-manāḥ sukheṣhu vigata-spṛihaḥ vīta-rāga-bhaya-krodhaḥ sthita-dhīr munir uchyate
।।2.56।। दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है।
yaḥ sarvatrānabhisnehas tat tat prāpya śhubhāśhubham nābhinandati na dveṣhṭi tasya prajñā pratiṣhṭhitā
।।2.57।। सब जगह आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ-अशुभको प्राप्त करके न तो अभिनन्दित होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।
yadā sanharate chāyaṁ kūrmo ’ṅgānīva sarvaśhaḥ indriyāṇīndriyārthebhyas tasya prajñā pratiṣhṭhitā
।।2.58।। जिस तरह कछुआ अपने अङ्गोंको सब ओरसे समेट लेता है, ऐसे ही जिस कालमें यह कर्मयोगी इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे समेट लेता (हटा लेता) है, तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है।
viṣhayā vinivartante nirāhārasya dehinaḥ rasa-varjaṁ raso ’pyasya paraṁ dṛiṣhṭvā nivartate
।।2.59।। निराहारी (इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेवाले) मनुष्यके भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस निवृत्त नहीं होता। परन्तु इस स्थितप्रज्ञ मनुष्यका तो रस भी परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे निवृत्त हो जाता है।
yatato hyapi kaunteya puruṣhasya vipaśhchitaḥ indriyāṇi pramāthīni haranti prasabhaṁ manaḥ
।।2.60।। हे कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहनेसे) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं।
tāni sarvāṇi sanyamya yukta āsīta mat-paraḥ vaśhe hi yasyendriyāṇi tasya prajñā pratiṣhṭhitā
।।2.61।। कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके मेरे परायण होकर बैठे; क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।
dhyāyato viṣhayān puṁsaḥ saṅgas teṣhūpajāyate saṅgāt sañjāyate kāmaḥ kāmāt krodho ’bhijāyate
।।2.62 -- 2.63।। विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।
krodhād bhavati sammohaḥ sammohāt smṛiti-vibhramaḥ smṛiti-bhranśhād buddhi-nāśho buddhi-nāśhāt praṇaśhyati
।।2.62 -- 2.63।। विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।
rāga-dveṣha-viyuktais tu viṣhayān indriyaiśh charan ātma-vaśhyair-vidheyātmā prasādam adhigachchhati
।।2.64 -- 2.65।। वशीभूत अन्तःकरणवाला कर्मयोगी साधक रागद्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ अन्तःकरणकी निर्मलता को प्राप्त हो जाता है। निर्मलता प्राप्त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है और ऐसे शुद्ध चित्तवाले साधककी बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी परमात्मामें स्थिर हो जाती है।
prasāde sarva-duḥkhānāṁ hānir asyopajāyate prasanna-chetaso hyāśhu buddhiḥ paryavatiṣhṭhate
।।2.64 -- 2.65।। वशीभूत अन्तःकरणवाला कर्मयोगी साधक रागद्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ अन्तःकरणकी निर्मलता को प्राप्त हो जाता है। निर्मलता प्राप्त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है और ऐसे शुद्ध चित्तवाले साधककी बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी परमात्मामें स्थिर हो जाती है।
nāsti buddhir-ayuktasya na chāyuktasya bhāvanā na chābhāvayataḥ śhāntir aśhāntasya kutaḥ sukham
।।2.66।। जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्यकी व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती और व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे उसमें कर्तव्यपरायणताकी भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है?
indriyāṇāṁ hi charatāṁ yan mano ’nuvidhīyate tadasya harati prajñāṁ vāyur nāvam ivāmbhasi
।।2.67।। अपने-अपने विषयोंमें विचरती हुई इन्द्रियोंमेंसे एक ही इन्द्रिय जिस मनको अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन जलमें नौकाको वायुकी तरह इसकी बुद्धिको हर लेता है।
tasmād yasya mahā-bāho nigṛihītāni sarvaśhaḥ indriyāṇīndriyārthebhyas tasya prajñā pratiṣhṭhitā
।।2.68।। इसलिये हे महाबाहो ! जिस मनुष्यकी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे सर्वथा निगृहीत (वशमें की हुई) हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।
yā niśhā sarva-bhūtānāṁ tasyāṁ jāgarti sanyamī yasyāṁ jāgrati bhūtāni sā niśhā paśhyato muneḥ
।।2.69।। सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मासे विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है, और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है।
āpūryamāṇam achala-pratiṣhṭhaṁ samudram āpaḥ praviśhanti yadvat tadvat kāmā yaṁ praviśhanti sarve sa śhāntim āpnoti na kāma-kāmī
।।2.70।। जैसे सम्पूर्ण नदियोंका जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है, पर समुद्र अपनी मर्यादामें अचल प्रतिष्ठित रहता है ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य को विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंकी कामनावाला नहीं।
vihāya kāmān yaḥ sarvān pumānśh charati niḥspṛihaḥ nirmamo nirahankāraḥ sa śhāntim adhigachchhati
।।2.71।। जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित होकर आचरण करता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है।
eṣhā brāhmī sthitiḥ pārtha naināṁ prāpya vimuhyati sthitvāsyām anta-kāle ’pi brahma-nirvāṇam ṛichchhati
।।2.72।। हे पृथानन्दन ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई मोहित नहीं होता। इस स्थितिमें यदि अन्तकालमें भी स्थित हो जाय, तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है।
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