śhrī bhagavān uvācha bhūya eva mahā-bāho śhṛiṇu me paramaṁ vachaḥ yatte ’haṁ prīyamāṇāya vakṣhyāmi hita-kāmyayā
।।10.1।। श्रीभगवान् बोले -- हे महाबाहो अर्जुन ! मेरे परम वचनको तुम फिर भी सुनो, जिसे मैं तुम्हारे हितकी कामनासे कहूँगा; क्योंकि तुम मेरेमें अत्यन्त प्रेम रखते हो।
yo māmajam anādiṁ cha vetti loka-maheśhvaram asammūḍhaḥ sa martyeṣhu sarva-pāpaiḥ pramuchyate
।।10.3।। जो मनुष्य मुझे अजन्मा, अनादि और सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्वर जानता है अर्थात् दृढ़तासे मानता है, वह मनुष्योंमें असम्मूढ़ (जानकार) है और वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है।
buddhir jñānam asammohaḥ kṣhamā satyaṁ damaḥ śhamaḥ sukhaṁ duḥkhaṁ bhavo ’bhāvo bhayaṁ chābhayameva cha
।।10.4 -- 10.5।। बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, भव, अभाव, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश और अपयश -- प्राणियोंके ये अनेक प्रकारके और अलग-अलग (बीस) भाव मेरेसे ही होते हैं।
ahiṁsā samatā tuṣṭis tapo dānaṁ yaśo 'yaśaḥ bhavanti bhāvā bhūtānāṁ matta eva pṛthag-vidhāḥ
।।10.4 -- 10.5।। बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, भव, अभाव, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश और अपयश -- प्राणियोंके ये अनेक प्रकारके और अलग-अलग (बीस) भाव मेरेसे ही होते हैं।
maharṣhayaḥ sapta pūrve chatvāro manavas tathā mad-bhāvā mānasā jātā yeṣhāṁ loka imāḥ prajāḥ
।।10.6।। सात महर्षि और उनसे भी पूर्वमें होनेवाले चार सनकादि तथा चौदह मनु -- ये सब-के-सब मेरे मनसे पैदा हुए हैं और मेरेमें भाव (श्रद्धाभक्ति) रखनेवाले हैं, जिनकी संसारमें यह सम्पूर्ण प्रजा है।
etāṁ vibhūtiṁ yogaṁ cha mama yo vetti tattvataḥ so ’vikampena yogena yujyate nātra sanśhayaḥ
।।10.7।। जो मनुष्य मेरी इस विभूतिको और योगको तत्त्वसे जानता है अर्थात् दृढ़तापूर्वक मानता है, वह अविचल भक्तियोगसे युक्त हो जाता है; इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
ahaṁ sarvasya prabhavo mattaḥ sarvaṁ pravartate iti matvā bhajante māṁ budhā bhāva-samanvitāḥ
।।10.8।। मैं संसारमात्रका प्रभव (मूलकारण) हूँ, और मुझसे ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात् चेष्टा कर रहा है -- ऐसा मेरेको मानकर मेरेमें ही श्रद्धा-प्रेम रखते हुए बुद्धिमान् भक्त मेरा ही भजन करते हैं -- सब प्रकारसे मेरे ही शरण होते हैं।
mach-chittā mad-gata-prāṇā bodhayantaḥ parasparam kathayantaśh cha māṁ nityaṁ tuṣhyanti cha ramanti cha
।।10.9।।। मेरेमें चित्तवाले, मेरेमें प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन आपसमें मेरे गुण, प्रभाव आदिको जानते हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्य-निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं और मेरेमें प्रेम करते हैं।
teṣhāṁ satata-yuktānāṁ bhajatāṁ prīti-pūrvakam dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ yena mām upayānti te
।।10.10।। उन नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तोंको मैं वह बुद्धियोग देता हूँ, जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है।
teṣhām evānukampārtham aham ajñāna-jaṁ tamaḥ nāśhayāmyātma-bhāva-stho jñāna-dīpena bhāsvatā
।।10.11।। उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूप (होनेपन) में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ।
arjuna uvācha paraṁ brahma paraṁ dhāma pavitraṁ paramaṁ bhavān puruṣhaṁ śhāśhvataṁ divyam ādi-devam ajaṁ vibhum
।।10.12 -- 10.12।। अर्जुन बोले -- परम ब्रह्म, परम धाम और महान् पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु (व्यापक) हैं -- ऐसा सब-के-सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।
āhus tvām ṛiṣhayaḥ sarve devarṣhir nāradas tathā asito devalo vyāsaḥ svayaṁ chaiva bravīṣhi me
।।10.12 -- 10.13।। अर्जुन बोले -- परम ब्रह्म, परम धाम और महान् पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु (व्यापक) हैं -- ऐसा सब-के-सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।
sarvam etad ṛitaṁ manye yan māṁ vadasi keśhava na hi te bhagavan vyaktiṁ vidur devā na dānavāḥ
।।10.14।। हे केशव ! मेरेसे आप जो कुछ कह रहे हैं, यह सब मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन् ! आपके प्रकट होनेको न तो देवता जानते हैं और न दानव ही जानते हैं।
vaktum arhasyaśheṣheṇa divyā hyātma-vibhūtayaḥ yābhir vibhūtibhir lokān imāṁs tvaṁ vyāpya tiṣhṭhasi
।।10.16।। जिन विभूतियोंसे आप इन सम्पूर्ण लोकोंको व्याप्त करके स्थित हैं, उन सभी अपनी दिव्य विभूतियोंका सम्पूर्णतासे वर्णन करनेमें आप ही समर्थ हैं।
kathaṁ vidyām ahaṁ yogins tvāṁ sadā parichintayan keṣhu keṣhu cha bhāveṣhu chintyo ’si bhagavan mayā
।।10.17।। हे योगिन् ! हरदम साङ्गोपाङ्ग चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ ? और हे भगवन् ! किन-किन भावोंमें आप मेरे द्वारा चिन्तन किये जा सकते हैं अर्थात् किन-किन भावोंमें मैं आपका चिन्तन करूँ ?
vistareṇātmano yogaṁ vibhūtiṁ cha janārdana bhūyaḥ kathaya tṛiptir hi śhṛiṇvato nāsti me ’mṛitam
।।10.18।। हे जनार्दन ! आप अपने योग (सामर्थ्य) को और विभूतियोंको विस्तारसे फिर कहिये; क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनते-सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।
śhrī bhagavān uvācha hanta te kathayiṣhyāmi divyā hyātma-vibhūtayaḥ prādhānyataḥ kuru-śhreṣhṭha nāstyanto vistarasya me
।।10.19।। श्रीभगवान् बोले -- हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियोंको तेरे लिये प्रधानतासे (संक्षेपसे) कहूँगा; क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ ! मेरी विभूतियोंके विस्तारका अन्त नहीं है।
aham ātmā guḍākeśha sarva-bhūtāśhaya-sthitaḥ aham ādiśh cha madhyaṁ cha bhūtānām anta eva cha
।।10.20।। हे नींदको जीतनेवाले अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें भी मैं ही हूँ और प्राणियोंके अन्तःकरणमें आत्मरूपसे भी मैं ही स्थित हूँ।
ādityānām ahaṁ viṣhṇur jyotiṣhāṁ ravir anśhumān marīchir marutām asmi nakṣhatrāṇām ahaṁ śhaśhī
।।10.21।। मैं अदितिके पुत्रोंमें विष्णु (वामन) और प्रकाशमान वस्तुओंमें किरणोंवाला सूर्य हूँ। मैं मरुतोंका तेज और नक्षत्रोंका अधिपति चन्द्रमा हूँ।
rudrāṇāṁ śhaṅkaraśh chāsmi vitteśho yakṣha-rakṣhasām vasūnāṁ pāvakaśh chāsmi meruḥ śhikhariṇām aham
।।10.23।। रुद्रोंमें शंकर और यक्ष-राक्षसोंमें कुबेर मैं हूँ।वसुओंमें पावक (अग्नि) और शिखरवाले पर्वतोंमें सुमेरु मैं हूँ।
purodhasāṁ cha mukhyaṁ māṁ viddhi pārtha bṛihaspatim senānīnām ahaṁ skandaḥ sarasām asmi sāgaraḥ
।।10.24।। हे पार्थ ! पुरोहितोंमें मुख्य बृहस्पतिको मेरा स्वरूप समझो। सेनापतियोंमें स्कन्द और जलाशयोंमें समुद्र मैं हूँ।
maharṣhīṇāṁ bhṛigur ahaṁ girām asmyekam akṣharam yajñānāṁ japa-yajño ’smi sthāvarāṇāṁ himālayaḥ
।।10.25।। महर्षियोंमें भृगु और वाणियों-(शब्दों-) में एक अक्षर अर्थात् प्रणव मैं हूँ। सम्पूर्ण यज्ञोंमें जपयज्ञ और स्थिर रहनेवालोंमें हिमालय मैं हूँ।
aśhvatthaḥ sarva-vṛikṣhāṇāṁ devarṣhīṇāṁ cha nāradaḥ gandharvāṇāṁ chitrarathaḥ siddhānāṁ kapilo muniḥ
।।10.26।। सम्पूर्ण वृक्षोंमें पीपल, देवर्षियोंमें नारद, गन्धर्वोंमें चित्ररथ और सिद्धोंमें कपिल मुनि मैं हूँ।
uchchaiḥśhravasam aśhvānāṁ viddhi mām amṛitodbhavam airāvataṁ gajendrāṇāṁ narāṇāṁ cha narādhipam
।।10.27।। घोड़ोंमें अमृतके साथ समुद्रसे प्रकट होनेवाले उच्चैःश्रवा नामक घोड़ेको, श्रेष्ठ हाथियोंमें ऐरावत नामक हाथीको और मनुष्योंमें राजाको मेरी विभूति मानो।
āyudhānām ahaṁ vajraṁ dhenūnām asmi kāmadhuk prajanaśh chāsmi kandarpaḥ sarpāṇām asmi vāsukiḥ
।।10.28।। आयुधोंमें वज्र और धेनुओंमें कामधेनु मैं हूँ। सन्तान-उत्पत्तिका हेतु कामदेव मैं हूँ और सर्पोंमें वासुकि मैं हूँ।
prahlādaśh chāsmi daityānāṁ kālaḥ kalayatām aham mṛigāṇāṁ cha mṛigendro ’haṁ vainateyaśh cha pakṣhiṇām
।।10.30।। दैत्योंमें प्रह्लाद और गणना करनेवालोंमें काल मैं हूँ । पशुओंमें सिंह और पक्षियोंमें गरुड मैं हूँ।
pavanaḥ pavatām asmi rāmaḥ śhastra-bhṛitām aham jhaṣhāṇāṁ makaraśh chāsmi srotasām asmi jāhnavī
।।10.31।। पवित्र करनेवालोंमें वायु और शास्त्रधारियोंमें राम मैं हूँ। जल-जन्तुओंमें मगर मैं हूँ। बहनेवाले स्त्रोतोंमें गङ्गाजी मैं हूँ।
sargāṇām ādir antaśh cha madhyaṁ chaivāham arjuna adhyātma-vidyā vidyānāṁ vādaḥ pravadatām aham
।।10.32।। हे अर्जुन ! सम्पूर्ण सर्गोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। विद्याओंमें अध्यात्मविद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करनेवालोंका(तत्त्व-निर्णयके लिये किया जानेवाला) वाद मैं हूँ।
अहमेवाक्षय: कालो धाताहं विश्वतोमुख: || 33|| akṣharāṇām a-kāro ’smi dvandvaḥ sāmāsikasya cha aham evākṣhayaḥ kālo dhātāhaṁ viśhvato-mukhaḥ
।।10.33।। अक्षरोंमें अकार और समासोंमें द्वन्द्व समास मैं हूँ। अक्षयकाल अर्थात् कालका भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला धाता भी मैं हूँ।
mṛityuḥ sarva-haraśh chāham udbhavaśh cha bhaviṣhyatām kīrtiḥ śhrīr vāk cha nārīṇāṁ smṛitir medhā dhṛitiḥ kṣhamā
।।10.34।। सबका हरण करनेवाली मृत्यु और उत्पन्न होनेवालोंका उभ्दव मैं हूँ तथा स्त्री-जातिमें कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हूँ।
bṛihat-sāma tathā sāmnāṁ gāyatrī chhandasām aham māsānāṁ mārga-śhīrṣho ’ham ṛitūnāṁ kusumākaraḥ
।।10.35।। गायी जानेवाली श्रुतियोंमें बृहत्साम और वैदिक छन्दोंमें गायत्री छन्द मैं हूँ। बारह महीनोंमें मार्गशीर्ष और छः ऋतुओंमें वसन्त मैं हूँ।
dyūtaṁ chhalayatām asmi tejas tejasvinām aham jayo ’smi vyavasāyo ’smi sattvaṁ sattvavatām aham
।।10.36।। छल करनेवालोंमें जूआ और तेजस्वियोंमें तेज मैं हूँ। जीतनेवालोंकी विजय, निश्चय करनेवालोंका निश्चय और सात्त्विक मनुष्योंका सात्त्विक भाव मैं हूँ।
vṛiṣhṇīnāṁ vāsudevo ’smi pāṇḍavānāṁ dhanañjayaḥ munīnām apyahaṁ vyāsaḥ kavīnām uśhanā kaviḥ
।।10.37।। वृष्णिवंशियोंमें वासुदेव और पाण्डवोंमें धनञ्जय मैं हूँ। मुनियोंमें वेदव्यास और कवियोंमें कवि शुक्राचार्य भी मैं हूँ।
daṇḍo damayatām asmi nītir asmi jigīṣhatām maunaṁ chaivāsmi guhyānāṁ jñānaṁ jñānavatām aham
।।10.38।। दमन करनेवालोंमें दण्डनीति और विजय चाहनेवालोंमें नीति मैं हूँ। गोपनीय भावोंमें मौन और ज्ञानवानोंमें ज्ञान मैं हूँ।
yach chāpi sarva-bhūtānāṁ bījaṁ tad aham arjuna na tad asti vinā yat syān mayā bhūtaṁ charācharam
।।10.39।। हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है, वह बीज मैं ही हूँ; क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।
nānto ’sti mama divyānāṁ vibhūtīnāṁ parantapa eṣha tūddeśhataḥ prokto vibhūter vistaro mayā
।।10.40।। हे परंतप अर्जुन ! मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियोंका जो विस्तार कहा है, यह तो केवल संक्षेपसे कहा है।
yad yad vibhūtimat sattvaṁ śhrīmad ūrjitam eva vā tat tad evāvagachchha tvaṁ mama tejo ’nśha-sambhavam
।।10.41।। जो-जो ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त प्राणी तथा वस्तु है, उस-उसको तुम मेरे ही तेज-(योग-) के अंशसे उत्पन्न हुई समझो।
atha vā bahunaitena kiṁ jñātena tavārjuna viṣhṭabhyāham idaṁ kṛitsnam ekānśhena sthito jagat
।।10.42।। अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जाननेकी क्या आवश्यकता है? मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।
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